
और क़लम थरथरा उठी
देवराला से रूपकुँवर आई और मेरे कानों में फुसफुसाई- “मुझे ढकेल-ढकेल कर पति की चिता के साथ ज़िंदा जलाई गई को अपनी कहानी में जीवित नहीं करोगी?” मेरी क़लम काँप गई- “नहीं रूपकुँवर... मैं औरत की पराजय नहीं लिख पाती।” वह ढीठ-सी जमकर मेरे सामने बैठ गई।.... उस वक़्त रेडियो में से एक दर्दीले गीत की आवाज़ कमरे को मुखर कर रही थी, पर गीत वही तो नहीं होता जो कानों को सुनाई दे? वह शरीर के रोम-रोम से भी तो सुना जा सकता है..... लहू, माँस, ज्वालाएँ और फिर राख हुई ज़िन्दगी का गीत। अब रूपकुँवर मुस्कुराई..... ‘एकदम सही नब्ज़ पकड़ी तुमने’.....कहा और चली गई.....और मेरी कलम थरथराने लगी। हेमंत ने उठकर रेडियो बंद कर दिया और कमरे के सन्नाटेमें पैबिस्त होने लगी थी
Details
- Publication Date
- Jun 13, 2018
- Language
- Hindi
- ISBN
- 9781387879595
- Category
- Fiction
- Copyright
- All Rights Reserved - Standard Copyright License
- Contributors
- By (author): Santosh Srivastav
Specifications
- Format